ताज़िया की शरई हक़ीक़त। (पार्ट-03)

ढोल-ताशे बाजे बजते चल रहे हैं। तरह तरह के खेलों की धूम, बाज़ारी औरतों का हुजूम, शहवत (बद-निग़ाही) परोसती मेलों की रस्में और उसके साथ ख्याल कुछ और गोया की यह साख्ता तस्वीरें बऐनिही हज़रात शोहदा रिजवानुल्लाह तआला अलैहिम के जनाज़े हैं। ताज़ियों की कुछ पन्नी नोच कर उतार लेते हैं तो बाकी को तोड़ ताड़ कर दफन कर देते हैं। अल्लाह तआला हज़रात शोहदा-ए-करबला अलैहिमुर्रिज़वान वस्सना का हमारे भाईयों को नेकियों की तौफ़ीक़ बख्शे और बुरी बातों से तौबा अता फरमाऐ। आमीन

अबकी ताज़ियादारी इस तरीका नामर्जिया का नाम है। क़तअन बिदअत व नाजाईज व हराम है। हाँ अगर अहले इस्लाम सिर्फ जाइज़ तौर पर हजरात शुहदाए किराम की मुक़द्दस रूह को इसाले सवाब करते तो किस क़दर महबूब था। और अगर नज़रे शौक़ व मुहब्बत में नक्ल रौज़ा-ए-अनवर की जरूरत भी थी। तो जाइज़ चीजों पर बस करते। की सही नक्ल को तबर्रूक़ व ज्यारत अपने मकान में रखते और मातम नौहा (सीना पीट कर रोना) वगैरह बिदअत से बचते। मगर अब ऐसी नकल में अहले बिदअत से मुशाबेहत और ताज़ियादारी की तोहमत का खदशा और आइंदा अपनी औलाद का या अहले एतक़ाद के लिए बिदअत में मुब्तला होने का खतरा है।

लिहाज़ा रौज़ा-ए-अक्दस हुज़ूर सैय्यदुश्शोहदा की ऐसी तसवीर भी न बनाए बल्कि सिर्फ कागज़ के सही नख्शे पर कनाअत करें और उसे बक़स्दे तबर्रूक़ मम्नूअ चीजें मिलाऐ बगैर अपने पास रखें। जिस तरह हरमैन मोहतरमैन से काबा मुअज़्ज़मा और रौज़ा-ए-आलिया के नख्शे आते हैं।

फतावा रज़विया, जिल्द 9, सफा 35,36 | फैज़ाने आला हज़रत, सफा 255

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