बिन देखे इश्क-ए-मुस्तफा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमाया:

يَأْتِي عَلَى النَّاسِ زَمَانٌ يَجْتَمِعُونَ فِي الْمَسَاجِدِ لَيْسَ فِيهِمْ مُؤْمِنٌ

“एक ज़माना आएगा जब लोग मस्जिद में जमा होंगे, लेकिन उनमें एक भी मुसलमान नहीं होगा।”

अब यह देखना ज़रूरी है कि लोग मस्जिद में होंगे, जो इबादत के लिए जाया जाता है, लेकिन फिर भी मुसलमान नहीं होंगे। मस्जिद में आना मुसलमान होने का दलील नहीं है। अगर कोई मस्जिद में बहुत ज़्यादा जाता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह मुसलमान है।

तो फिर मुसलमान कौन होंगे?

रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हमें यह भी बताया है। इरशाद फ़रमाया:

عَنْ عَمْرِو بْنِ شُعَيْبٍ، عَنْ أَبِيهِ، عَنْ جَدِّهِ، قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ

“कौन सी मखलूक का ईमान तुम्हें अजीब लगता है?” सहाबा ने अर्ज़ किया: “फरिश्तों का।” रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया: “वह ईमान क्यों न लाते जब वे अल्लाह के पास रहते हैं।”

सहाबा ने अर्ज़ किया: “अंबिया का ईमान होगा।” रसूल अल्लाह ने फ़रमाया: “वे ईमान क्यों न लाते जब उन पर वही नाज़िल होती है।” सहाबा ने अर्ज़ किया: “तो फिर हम हैं।” रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया: “तुम ईमान क्यों न लाते जब मैं तुम्हारे दरमियान हूँ।”

सहाबा ने अर्ज़ किया: “फिर कौन है?” रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया: “वे लोग जो तुम्हारे बाद आएंगे, उनके हाथ में किताब होगी, यानी कुरआन, पढ़ेंगे और ईमान लाएंगे।”

इस हदीस में रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह बताया कि सबसे अजीब और खास ईमान उन लोगों का होगा जो बाद में ईमान लाएंगे। अब यह जानना जरूरी है कि ईमान की हक़ीक़त (सच्चाई) क्या है।

आइए, हदीस-ए-मुस्तफा की रोशनी में इसे समझते हैं।

रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमाया:

طُوبَىٰ لِمَن رَآنِي وَآمَنَ بِي، وَطُوبَىٰ سَبْعَ مَرَّاتٍ لِمَن لَمْ يَرَنِي وَآمَنَ بِي

“मुबारक हो उनको जिन्होंने मुझे देखा और ईमान लाए, और 7 बार मुबारक हो उन्हें जो बिन देखे ईमान लाए।”

एक और हदीस है:

هَلْ أَحَدٌ خَيْرٌ مِنَّا؟ أَسْلَمْنَا مَعَكَ وَجَاهَدْنَا مَعَكَ، قَالَ: “نَعَمْ، قَوْمٌ يَكُونُونَ مِنْ بَعْدِكُمْ يُؤْمِنُونَ بِي وَلَمْ يَرَوْنِي

सहाबा इकराम ने अर्ज़ किया: “या रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), क्या हमसे बेहतर भी कोई होगा?” आपने (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़रमाया: “हाँ, वो लोग जो तुम्हारे बाद आएंगे, मुझ पर ईमान लाएंगे मगर उन्होंने मुझे देखा नहीं होगा।”

नोट: यहाँ पर जज़वी फ़ज़ीलत का ज़िक्र है, कुली फ़ज़ीलत सहाबा इकराम को अंबिया के बाद पूरी उम्मत पर है।

यहाँ पर भी वही बात है, बिन देखे ईमान लाने की फ़ज़ीलत। असल ईमान क्या है? इसे जानने से पहले एक और हदीस जान लें:

عَنْ الْحَارِثِ بْنِ مَالِكٍ الْأَنْصَارِيِّ أَنَّهُ مَرَّ بِالنَّبِيِّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَقَالَ لَهُ: كَيْفَ أَصْبَحْتَ يَا حَارِثَةُ؟” قَالَ: أَصْبَحْتُ مُؤْمِنًا حَقًّا، قَالَ: “انْظُرْ مَا تَقُولُ، فَإِنَّ لِكُلِّ قَوْلٍ حَقِيقَةً، فَمَا حَقِيقَةُ إِيمَانِكَ؟

रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया: “ज़ैद बिन हारिस बता, तेरी सुबह कैसी हुई?” ज़ैद ने अर्ज़ किया: “मेरी सुबह इस हाल में हुई कि मैं मोमिन हूँ।” रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया: “गौर कर, तुम क्या कह रहे हो, हर चीज़ की एक हक़ीक़त होती है। तुम्हारे ईमान की हक़ीक़त क्या है?”

अब यह ईमान की हक़ीक़त क्या है, आइए सुनते हैं रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़ुबान से:

مَنْ أَشَدُّ أُمَّتِي لِي حُبًّا، نَاسٌ يَكُونُونَ بَعْدِي، يَوَدُّ أَحَدُهُمْ لَوْ رَآنِي بِأَهْلِهِ وَمَالِهِ

“मेरी उम्मत में से वो लोग जो मेरे बाद आएंगे, मुझसे इतनी मोहब्बत करेंगे कि उनकी तमन्ना होगी कि अपना माल और अहल-ओ-आयाल सब कुरबान कर दें ताकि मेरी ज़ियारत कर लें।”

आज लोग दावा करते हैं कि जिन्होंने सबसे ज्यादा ताब्लीग की, सबसे बड़े मोमिन वही हैं। जो मदरसे बनाते हैं, वो दावा करते हैं कि मोमिन वही हैं। जो अपना पजामा ऊपर उठाते हैं, वो दावा करते हैं कि मोमिन वही हैं। लेकिन ईमान न तो ज़ाहिरी शक्ल में है, न तुम्हारे जुब्बे और क़ुब्बे में, न तुम्हारी तब्लीग में।

मुस्तफा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पूछो कि ईमान की हक़ीक़त क्या है। रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया: “वो लोग जो बिन देखे मुझसे इश्क करते होंगे, और उनकी तमन्ना होगी कि अपने माल और अहल-ओ-आयाल सबको नबी पर कुरबान कर दें, मगर मुस्तफा का दीदार कर लें।”

यहाँ पर मोहब्बत की शिद्दत का ज़िक्र है। जब मोहब्बत أَشَدِّ لِي حُبًّا हो जाए, तो इसे इश्क-ए-मुस्तफा कहते हैं।

और हदीस के आखिरी हिस्से में फ़रमाया: “उनमें हर एक की तमन्ना यह होगी कि एक बार मुस्तफा का दीदार मिल जाए, तो मैं अपने मां-बाप और सब कुछ कुरबान कर दूं।”

आला हज़रत के अल्फ़ाज़ में इसका तर्जुमा:

‘करूं तेरे नाम पे जान फ़िदा, न बस एक जान दो जहाँ फ़िदा।  

दो जहाँ से भी नहीं जी भरा, करूं क्या करोड़ों जहाँ नहीं।’

और ये हदीस बुखारी शरीफ़, मुस्लिम शरीफ़, इब्न माजा, तिर्मिज़ी, अबू दाऊद और सुनन नसाई में आई है।

यहां साफ़ हो गया कि ईमान की हक़ीक़त सिर्फ़ आमाल (कर्म) नहीं, नमाज़ नहीं, बल्कि मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से इश्क़ है। ईमान की हक़ीक़त इश्क़-ए-मुस्तफ़ा है।

अब जिसके पास यह है, वह मुसलमान है। और जिसके पास यह नहीं, तो वह अपने हाल का ख़ुद जायज़ा ले कि वह क्या है।

आला हज़रत कहते हैं:

“इश्क के मोती रॉल गए, सारी हक़ीक़त खोल गए।  

देखे सबक अनमोल गए, प्यारे नबी ईमान की जान, मेरे नबी ज़ीशन…”

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