ताज़िया की शरई हक़ीक़त। (पार्ट-02)

अव्वल तो ताज़िया में रौज़ा-ए-मुबारक की नकल का ख्याल न रहा। हर जगह नई नई तराश(बनावट) जिसे असली रौज़ा से कोई निस्बत (हुबहू) नही। फिर किसी में परियां, किसी में बुराक, किसी में और बेहुदा चीजें फिर गली ब गली, कूचा ब कूचा ताज़िये को ग़म के लिए घुमाते फिरना और उनके इर्द गिर्द सीना पीटना और मातम करना और इस शोर में कोई इन तस्वीरों को झुक कर सलाम कर रहा है। कोई इन ताज़ियों का तवाफ़ कर रहा जैसे काबा शरीफ का किया जाता है। कोई इन ताजियों को सज्दा कर रहा है। कोई इन “बिदअत” (दीन में कोई नई चीज़ पैदा करना) मआज़ल्लाह जलवागाहे इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु तआला अन्हु समझ कर उन कागज़ और गत्तों अबरक  पन्नी से मुरादें माँगता, मिन्नतें मांगता है। फिर बाजे, तमाशे, मर्दो-औरतों का रातों का मेल और इस तरह के बेहुदा खेल। (अल्लाह की पनाह)

ग़रज़ मुहर्रमुल-हराम अगली शरीअतों से इस शरीअत पाक तक निहायत बा-बरकत ठहरा हुआ था। उन बेहूदा रस्म व रिवाज़ ने जाहिलाना और फासिकाना मेलों का ज़माना कर दिया। फिर बिदअत (दीन में नई चीज़ पैदा करना) का ऐसा तूफान उठा की खैरात को भी बतौर खैरात न रखा। दिखावा और घंमड ऐलानिया होता है। फिर यह भी नही की सीधे मुहताजों के दें बल्कि छतों पर बैठ कर फेकेंगे। रोटियां ज़मीन पर गिर रही, रिज़्क़-ए-इलाही की बेअदबी हो रही। पैसे फेंकतें हैं गिर कर गायब हो जाते हैं। माल की बरबादी हो रही लेकिन नाम हो गया की फलाँ सेठ “लंगर” करवा रहे हैं।

फैज़ाने आला हज़रत, सफा 258

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