दौरे-ए-हाज़िर में दीन और सुन्ननीयत और मज़हब-ए-हनफी की सही ताबीर और तर्जुमानी का नाम मसलक-ए-आला हज़रत है। तो लिहाज़ा जिसको भी इससे दूर-बा-नुफ़ूर (बचता) हुआ पाओ अब वो कैसा भी करीबी हो कितना भी करीबी हो उसको अपने से ऐसा ही दूर कर दो जैसे दूध को मक्खी से दूर कर दिया जाता है।
मज़हब-ए-अहले सुन्नत मसलक-ए-आला हज़रत के सच्चे पक्के तर्जुमान और उलमा-ए-मशाइख़ से रिश्ते मज़बूत रखें और हर तरह उनकी ताज़ीम और तकरीम को अपने दिल का ज़ेवर बनाएं और उनकी महफिलों से करीब रहें क्योंकि यह ईमान बचाने का बेहतरीन ज़रिया हैं।
आखिर में यही दुआ है अल्लाह तआला हमें बुजुर्गाने दीन का बा-अदब बनाए और तादम-ए-वापसी मसलक-ए-आला हज़रत पर रखे और इसी पर मौत नसीब फरमाए।आमीन या रब्बुल आलमीन।
नबी से जो है बेगाना उसे दिल से जुदा करदे
पिदर मदर बिरादर जान-ओ-माल उनपर फ़िदा करदे.
-फकीर असजद रजा खान बरेलवी
इन बातों पर अमल करने वाला ही मसलक-ए-आला हज़रत पर है।