मुसलमानों में बहुत सारी बिद’आत व खुराफात रिवाज़ पा चुकी हैं। उलमा-ए-इकराम ने उनके सद्द-ए-बाब के लिए स’ई-ए-बलीग़ फरमाई। मगर मुआशरा इन जरासीम (कीटाणु) से मुकम्मल पाक न हो सका। ख़ुसूसन आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी कुद्देसा सिर्रूह ने अपने खून जिगर से इस्लामी इक्दार की आबयारी की और माहौल में फैली हुई बुराइयों के इलाज के लिए नुस्खे बताऐ।
अगर मुसलमान आला हज़रत के फरमान पर अमल करें। और उनकी पुकार पर लब्बैक कहें तो हमारा मुआशरा बुराइयों और बिदआत से पाक साफ हो सकता है। इसकी ज़िंदा मिसाल मुहर्रम शरीफ की ताज़ियादारी है। ताज़िया दर हक़ीक़त रौज़ा-ए-शहीदे आज़म इमाम हुसैन रज़िअल्लाहु तआला अन्हु की शबीह (हमशक्ल) था। मगर लोगों ने इसमें मुख्तलिफ़ खुराफात जोड़ दीं। जिससे ताज़िया की असल हक़ीक़त रू-पोश हो गई। और नई तराश-ख़राश (किसी प्रकार की रचना में की जानेवाली काट-छाँट) का नाम ताज़िया पड़ गया। इसकी हक़ीक़त को जानने के लिए आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी की दर्द-अंगेज़ तहरीर मुलाहिज़ा करें।
ताज़िया की हक़ीक़त और उसमें खुराफात
ताज़िया की असल इस क़दर थी की, रौज़ा-ए-पुर नूर हुज़ूर शहज़ाद-ए-गुलगूं क़ुबा हुसैन शहीद ज़ुल्म व ज़फा रज़िअल्लाहु तआला अन्हु की सही नक्ल बना कर ब-नीयते तबर्रूक मकान में रखना, उसमें शरअन कोई हरज न था। तस्वीर मकानात वगैरह ग़ैर जानदार की बनाना, रखना सब जाइज़ और ऐसी चीजें कि मुअज़्ज़माने दीन की तरफ मंसूब हो कर अज़मत पैदा करें। उनकी तिमसाल (ख़्याली) तस्वीर ब-नीयत पास रखना क़तअन जाईज है। जैसे कई साल से अइम्म-ए-दीन व उलमा-ए-मोतमदीन ना’लैन-ए-पाक हुज़ूर सैय्यदुल कौनैन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम नक्शे बनाते, और उनके फवाइद-ए-जलीला व मुनाफा-ए-जज़ीला में मुस्तक़िल रिसाले तस्नीफ़ फरमाते।
मगर जिहाल बे-ख़ुर्द (जाहिलों) ने इस असले जाइज़ को बिल्कुल नेस्तो नाबूद (खत्म) करके सदहा ख़ुराफ़ात वो तराशीं के शरिअते मुतहरा से अल-अमान, अल-अमान की सदाए आयीं।
फैज़ाने आलाहज़रत, सफा 258